नई दिल्ली(deshabhi.com)। पहले ममता बनर्जी और फिर नीतीश कुमार। विपक्षी इंडी गठबंधन के दो सबसे अहम सूत्रधारों के किनारा करने से न सिर्फ विपक्ष की एकता धड़ाम हुई है, बल्कि लोकसभा चुनाव में विपक्ष की संभावनाओं को भी ग्रहण लग गया है। सपा और आम आदमी पार्टी से कांग्रेस की जारी खटपट के बीच अब सबकी निगाहें एनसीपी प्रमुख शरद पवार पर टिकी हैं। बिहार में हुए सियासी खेला के बाद पवार के हृदय परिवर्तन की चर्चा तेज है।
नीतीश का पाला बदल विपक्षी गठबंधन के लिए अब तक का सबसे बड़ा झटका है। नीतीश न सिर्फ इस गठबंधन के सूत्रधार थे, बल्कि राज्य में राजद, कांग्रेस और वाम दलों का महागठबंधन जातिगत समीकरणों में बेहद मजबूत होने के कारण भाजपा के लिए सबसे बड़ी सिरदर्दी था। अब नीतीश के राजग में आने के बाद बिहार में विपक्ष की संभावनाओं पर ग्रहण लग गया है।
मुख्य मुद्दे की धार भी कुंद
वह नीतीश ही थे जिन्होंने सामाजिक न्याय के मुद्दे पर भाजपा को घेरने की रणनीति तैयार की थी। उन्हीं की अगुवाई में बिहार में जातीय जनगणना के बाद आरक्षण का दायरा बढ़ाया गया। इसके बाद कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों ने इसे मुख्य मुद्दा बनाया। दबाव में राजग के सहयोगी दलों ने भी केंद्रीय स्तर पर जातीय जनगणना की मांग शुरू कर दी। अब जबकि इस मुद्दे के सूत्रधार नीतीश ही भाजपा के साथ आ गए हैं, तब विपक्ष के मुख्य मुद्दा के चमक खोने की संभावना बन गई है।
पवार पर बढ़ा दबाव
नीतीश के पाला बदलने और ममता का विपक्षी गठबंधन से दूरी बढ़ाने के बाद शरद पवार दबाव में हैं। महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम और पवार के भतीजे उन्हें साधने की नए सिरे से कोशिश कर रहे हैं। दबाव में शिवसेना यूटीबी के मुखिया उद्धव ठाकरे भी हैं। हालांकि भाजपा की अब उनमें नहीं बल्कि सिर्फ पवार में दिलचस्पी है। एनसीपी सूत्रों का कहना है कि पवार से नए सिरे से शुरू हुई बातचीत सकारात्मक है।
नीतीश सबकी जरूरत क्यों?
तमाम खट्टे अनुभवों के बाद भी भाजपा ने नीतीश को फिर से सीएम बनाने की शर्त मान ली। राजद, कांग्रेस और वाम दल के नेता भी अंत समय तक नीतीश को मनाने की कोशिश करते रहे। वह सिर्फ इसलिए की नीतीश राज्य में सत्ता की गारंटी हैं। बीते दो दशकों से नीतीश जिसके साथ रहे हैं उसका राज्य में पलड़ा भारी रहा है। नीतीश के साथ आने से गठबंधन का वोट प्रतिशत बारह प्रतिशत बढ़ जाता है।