दिल्ली (desh abhi .com ). 22 साल पहले 13 दिसंबर 2001 को संसद पर हुए आतंकवादी हमले की बरसी के दिन एकाएक पुराना खौफनाक मंजर एक बार आंखों के सामने ताजा हो गया, जब संसद के नए भवन में लोकसभा के भीतर दो युवक दर्शक दीर्घा से अचानक कूद कर सदन के भीतर पहुंच गए। फर्क इतना था कि तब गोलियों और धमाकों की गूंज थी, इस बार इन युवकों ने जो धुआं किया, उससे एकाएक दहशत तो फैली, लेकिन जैसे ही पता चला कि यह धुआं खतरनाक नहीं है, तो जान में जान आई।
इससे पहले भी कई साल पहले यूपीए-एक शासन काल के दौरान भी दोपहर में अचानक संसद भवन को खाली कराया गया था, क्योंकि सुरक्षा एजेंसियों को इनपुट मिला था कि परिसर में कहीं बम रखा गया है। मैं उस समय प्रेस दीर्घा में था। तब संसदीय कार्य मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी ने सबको बाहर मैदान में एकत्र करने का काम किया था। तब करीब एक घंटे तक सारे सांसद और मीडिया कर्मी बाहर रहे और बाद में जब पूरे भवन की गहन छानबीन हो गई तब हमें भीतर जाने दिया गया था।
यह संयोग है कि 13 दिसंबर 2001 को जब संसद पर हमला हुआ था, तब भी मैं अमर उजाला में कार्यरत था और अपने वरिष्ठ सहयोगी तत्कालीन राजनीतिक प्रमुख वीरेंद्र सेंगर के साथ संसद परिसर की ओर जा रहा था, जब अचानक धमाकों की आवाज गूंजने लगी। पहले लगा कि कहीं कोई पटाखे छोड रहा है, लेकिन पुलिस और सुरक्षा कर्मियों की अफरा तफरी और संसद भवन के सारे दरवाजे और मुख्य द्वार जिस तेजी के साथ बंद किए जाने लगे, उससे समझ में आ गया कि संसद पर आतंकवादी हमला हुआ है और ये पटाखों की नहीं गोलियों की आवाज है, जो आतंकवादियों और सुरक्षा कर्मियों के बीच चल रही हैं।
जो जहां था वहीं सुरक्षित ठिकाने की ओर भाग रहा था। भीतर तत्कालीन संसदीय कार्य मंत्री प्रमोद महाजन ने मोर्चा संभाला हुआ था और वह सांसदों और मीडिया कर्मियों को भीतर सुरक्षित स्थानों पर भेज रहे थे। पूरा वातावरण धुएं बारूद की गंध और सड़कों पर बह रहे खून से बेहद खौफनाक हो रहा था। एक आतंकवादी जो फिदायीन था, संसद भवन के भीतर घुसने की कोशिश में सुरक्षा कर्मियों की गोलियों का शिकार होकर सीढ़ियों से पहले ही ढेर हो चुका था। आतंकवादी हमले में कई सुरक्षा कर्मियों को भी गोली लगी थी, जिनमें नौ शहीद हो गए थे। काफी समय तक आतंकवादियों की संख्या को लेकर भ्रम बना रहा। पहले पता चला कि छह आतंकवादी थे, लेकिन बाद में उनकी संख्या पांच ही निकली, जिन्हें मार गिराया गया था। दहशत और दुख का माहौल था। संसद भवन परिसर के बाहर लोगों की भीड़ बढ़ रही थी। पुलिस उन्हें नियंत्रित करने में जुटी थी।
पुराने संसद भवन के स्वागत कक्ष के प्रमुख द्वार के सामने आज जहां पार्किंग है, तब वहां केंद्रीय भंडार का स्टोर होता था। हमला होते ही पुलिस ने उसे बंद करा दिया था, लेकिन आम लोगों की भीड़ वहां तक पहुंच चुकी थी और पुलिस ने उसे वहां रोक दिया था। कई पत्रकार और सासंद जो हमले से पहले संसद भवन के बाहर थे, वह बाहर ही रह गए थे और जो भीतर थे वो अंदर कमरों में बंद थे। हर शख्स एक दूसरे से सवाल कर रहा था, लेकिन पुख्ता जानकारी किसी के पास नहीं थी। पांच आतंकवादियों को ढेर करने के बावजूद सुरक्षा कर्मी पूरे परिसर में चप्पे-चप्पे पर तलाशी ले रहे थे, कि कहीं कोई बचा हुआ आतंकवादी छिपा तो नहीं है। बम निरोधक दस्ते आ चुके थे और पूरे परिसर को सैनिटाइज करके किसी भी तरह के विस्फोटक की खोज हो रही थी। शाम करीब चार बजे के बाद संसद भवन के दरवाजे खोले गए और धीरे-धीरे लोगों को बाहर निकाला जाने लगा। शाम होते होते पूरा संसद भवन परिसर खाली करा लिया गया। लेकिन जिन्होंने वह खौफनाक मंजर देखा था, उनके जेहन में आज भी वह तस्वीर वैसी ही दर्ज है, जैसे कल की बात हो और आज जब लोकसभा में दो युवकों के अचानक कूदने और धुआं करने की घटना हुई, तो एकाएक लगा कि क्या यह 22 साल पहले की पुनरावृत्ति तो नहीं है। वैसी ही अफरातफरी भी मची और चेहरों पर डर की छाया भी दिखी। संसद भवन की सुरक्षा में एक बार बड़ी चूक तब भी हुई थी, जब एक टीवी चैनल के पत्रकार ने सांसद शत्रुघ्न सिन्हा के एक डुप्लीकेट को सांसद बनाकर भीतर तक ले जाने का स्टिंग आपरेशन किया था।